Sawasthya
स्वस्थ रहना सबसे बड़ा सुख है।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ सुश्रुत संहिता में ऋषि ने लिखा है-
समदोषाः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥
अर्थात्
जिसके तीनों दोष (वात, पित्त एवं कफ) समान हों, जठराग्नि सम (न अधिक तीव्र,न अति मन्द) हो, शरीर को धारण करने वाली सात धातुएं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य) उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रियाएं भली प्रकार होती हों और दसों इन्द्रियां (आंख, कान, नाक, त्वचा, रसना, हाथ, पैर, जिह्वा, गुदा और उपस्थ), मन और सबकी स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो, तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है।
कहावत भी है-
'पहला सुख निरोगी काया'।
कोई आदमी तभी अपने जीवन का पूरा आनन्द उठा सकता है, जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रहे।
स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क निवास करता है।
इसलिए मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी शारीरिक स्वास्थ्य अनिवार्य है।
ऋषियों ने कहा है
'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्'
अर्थात् यह शरीर ही धर्म का श्रेष्ठ साधन है।
यदि हम धर्म में विश्वास रखते हैं और स्वयं को धार्मिक कहते हैं, तो अपने शरीर को स्वस्थ रखना हमारा पहला कर्तव्य है।
यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, तो जीवन भारस्वरूप हो जाता है।
यजुर्वेद में निरन्तर कर्मरत रहते हुए सौ वर्ष तक जीने का आदेश दिया गया है-
'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत्छतं समाः'
अर्थात् 'हे मनुष्य! इस संसार में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा कर।'
वेदों में ईश्वर से प्रार्थना की गई है-
'पश्येम् शरदः शतम्, जीवेम् शरदः शतम्,
श्रुणुयाम् शरदः शतम्, प्रब्रवाम् शरदः
शतम्, अदीनः स्याम् शरदः
शतम्, भूयश्च शरदः शतात्'
अर्थात्
'हम सौ वर्ष तक देखें, जिएं, सुनें, बोलें और आत्मनिर्भर रहें। (ईश्वर की कृपा से) हम सौ वर्ष से अधिक भी वैसे ही रहें।'
एक विदेशी विद्वान् डॉ. बेनेडिक्ट जस्ट ने कहा है-
'उत्तम स्वास्थ्य वह अनमोल रत्न है, जिसका मूल्य तब ज्ञात होता है, जब वह खो जाता है।'
एक शायर के शब्दों में-
'कद्रे-सेहत मरीज से पूछो, तन्दुरुस्ती हजार नियामत है।'
प्रश्न उठता है कि स्वास्थ्य क्या है अर्थात् किस व्यक्ति को हम स्वस्थ कह सकते हैं?
साधारण रूप से यह माना जाता है कि किसी प्रकार का शारीरिक और मानसिक रोग न होना ही स्वास्थ्य है।
यह एक नकारात्मक परिभाषा है और सत्य के निकट भी है, परन्तु पूरी तरह सत्य नहीं।
वास्तव में स्वास्थ्य का सीधा सम्बंध क्रियाशीलता से है।
जो व्यक्ति शरीर और मन से पूरी तरह क्रियाशील है, उसे ही पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकता है।
कोई रोग हो जाने पर क्रियाशीलता में कमी आती है, इसलिए स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है।
प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में स्वास्थ्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी गई है।
ऐलोपैथी और होम्योपैथी के चिकित्सक किसी भी प्रकार के रोग के अभाव को ही स्वास्थ्य मानते हैं।
वे रोग को या उसके अभाव को तो माप सकते हैं, परन्तु स्वास्थ्य को मापने का उनके पास कोई पैमाना नहीं है।
रोग के अभाव को मापने के लिए उन्होंने कुछ पैमाने बना रखे हैं, जैसे हृदय की धड़कन, रक्तचाप, लम्बाई या उम्र के अनुसार वजन, खून में हीमोग्लोबिन की मात्रा आदि।
इनमें से एक भी बात अनुभव द्वारा निर्धारित सीमाओं से कम या अधिक होने पर वे व्यक्ति को रोगी घोषित कर देते हैं और अपने हिसाब से उसकी चिकित्सा भी शुरू कर देते हैं।
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